Thursday, December 17, 2009
पा’ की औरतें; जमाने की हिचकियां
हालिया रिलीज फिल्म पा के के जरिये महिला-पुरुष संबंधों के बदलते समीकरण को बारीकी से सामने कर देने वाला यह लेख राष्ट्रीय सहारा में १३ दिसंबर को छपा और फिर चोखेर बाली पर भी डाला गया। इसे यहाँ समवेत के पाठको के सामने पेश करने का मकसद यह है कि पाठक एकनिष्ठता के मौजूदा बहस के सन्दर्भ में इस पर विचार कर सकें। क्या औरत के मजबूत होने, उसके अधिक से अधिक आत्मनिर्भर - आर्थिक, सामाजिक और खासकर मानसिक रूप से - होने का मतलब प्रकारांतर से यह है कि उसकी एकनिष्ठता में कमी आ जाती है? सवाल पाठको के सामने है और यह लेख भी।- प्रणव प्रियदर्शी
आर अनुराधा
'पा’ एक असामान्य फिल्म है। इसका अलग होना सिर्फ इस मायने में नहीं है कि इसमें एक अजीब सी बीमारी प्रोजेरिया के शिकार एक बच्चे को दिखाया गया है जो १२ साल की उम्र में साठ साल का या उससे भी बड़ा दिखता है और उसके शरीर के बढ़ने की रफ्तार जानलेवा होने की हद तक तेज है। अमिताभ बच्चन के नए अवतार ऑरो की भी काफी चर्चा है। लेकिन ‘पा’ की चर्चा इसके अलावा भी कुछ और कारणों से होनी चाहिए। दरअसल ये फिल्म परंपरा की कुछ पुरानी जकड़नों को बेहद निर्ममता के साथ ध्वस्त करती है। ‘पा’ फिल्म मजबूत महिला किरदारों की वजह से भी याद रखी जानी चाहिए। ये बाप-बेटे की नहीं मां-बेटे की कहानी है जिसमें पापा साइड रोल में है। ‘पा’ फिल्म की लीड करेक्टर विद्या कोई सामान्य लड़की नहीं है। विद्या की मां अरुधति नाग, जिसे ऑरो दादी की जगह मस्ती में 'बम' कहता है, भी सामान्य मां नहीं है। विद्या का जब अमोल (अभिषेक बच्चन) से शारीरिक संबंध बनता है तो वो जानती है कि इसका क्या नतीजा हो सकता है। आखिर वो मेडिकल की स्टूडेंट है। अमोल उसे अबॉर्शन यानी गर्भपात कराने की सलाह देता है। ये एक स्वार्थी-कैरयरिस्ट पुरुष की बेहद स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।
इस मोड़ पर विद्या और उसकी मां आम भारतीय परंपरागत लड़की और मां से अलग नजर आती है। परंपरा के बोझ से आजाद, विदेशी यूनिवर्सिटी में पढ़ रही विद्या अपना फैसला खुद लेने का साहस दिखाती है और बच्चा पैदा करने या ना करने के बारे में फैसला लेने की प्रक्रिया से पिता अमोल को अलग कर देती है। विद्या की मां भी आम भारतीय माताओं की तरह लड़की के बिगड़ जाने और पेट में बच्चा ठहर जाने को लेकर रोने पीटने नहीं लगती बल्कि मजबूती से यही पूछती है कि तुम्हें बच्चा चाहिए या नहीं। आखिरकार जब विद्या कहती है कि वो गर्भपात नहीं कराएगी तो विद्या की मां के चेहरे पर परेशानी की जगह एक आत्मविश्वास नजर आता है और एक तरह से अपनी बेटी के बोल्ड फैसले पर वो गर्व की मुद्रा में दिखती हैं।
भारतीय शहरों में भी बिनब्याही मां बनना अनहोनी बात ही है। फिल्मों में यदा कदा बिनब्याही मां का चरित्र आता है लेकिन बिना शादी के बच्चा पैदा करने के बेटी के फैसले पर संतोष व्यक्त करने वाली मां का किरदार किसी हिंदी फिल्म में ये कदाचित पहली बार आया है। विद्या की मां उस समय विधवा हो गईं थीं जब विद्या की उम्र सिर्फ दो साल थी। अकेले बच्चा पालने की तकलीफ का उन्हें एहसास है। फिर भी वो बेटी के फैसले से असहमत नहीं होतीं। बच्चे को पिता का नाम मिल जाए इसकी चिंता उन्हें है। लेकिन यहां पर उनकी बेटी विद्या इस बेहद मजबूती से जमे विचार की धज्जियां उड़ाती नजर आती हैं। यहां तक कि विद्या अमोल को इस बात का हक देने के लिए तैयार नहीं हैं कि वो ऑरो को अपना बेटा कहे। वो बेहद सख्ती से कहती है कि तुमने अपने स्पर्म यानी शुक्राणु मेरे शरीर में डाल दिए, इतने भर से तुम्हें पिता होने का हक नहीं मिल जाएगा। स्त्री-पुरुष संबंधों का ये नया धरातल है। संबंधों की व्याख्या करने का पुरुष विशेषाधिकार यहां आकर टूटता है।
आम तौर पर फिल्मों में महिलाएं ऐसे मामलों में बेटे या बेटी को पिता का नाम दिलाने के लिए संघर्ष करती दिखती हैं। लेकिन यहां एक मां है जो इससे बेपरवाह है और बेपरवाह ही नहीं है, इस विचार का ही वो विरोध करती हैं कि ऐसे पिता को पिता कहा जाए, जिसने पिता होने की कोई जिम्मेदारी ही नहीं निभाई। पिता होने को वो सेक्स के नतीजे यानी एक बायोलॉजिकल प्रक्रिया से बड़ा तथ्य मानती हैं और इसकी घोषणा भी करती हैं।पा’ की औरतें' जानती हैं कि उनका बोल्ड होना जमाने के लिए मुसीबत की वजह हैं। वो जानती हैं कि इस वजह से जमाने का गला सूखने लगता है और समाज को हिचकियां आने लगती हैं। लेकिन इस वजह से वो समझौता नहीं करतीं। वो समझौता करती भी हैं तो इसकी वजह परंपरा को मानने की मजबूरी नहीं हैं। जब ऑरो मृत्यु के करीब होता है और चाहता है कि उसकी मां और उसके पिता भी राउंड-राउंड घूमें जैसा कि शादी में होता है तो विद्या खुद ही पहल करती हैं और अमोल का हाथ पकड़कर ऑरो के बेड के चक्कर लगाती हैं। ये उसका अपना फैसला है, ये बेटे की इच्छा को पूरा करने की उसकी मजबूरी है।
स्त्री पात्रों का मजबूत चित्रण ‘पा’ फिल्म की एक बड़ी विशेषता है। सवाल ये है कि क्या इस मामले में ये फिल्म भारत के जमीनी यथार्थ से दूर है? इस सवाल का जवाब देते समय हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि भारतीय समाज कई लेयर्स यानी स्तरों में जी रहा है। समाज के एक हिस्से में सामंती जकड़न अब काफी हद तक टूट चुकी है। इस फिल्म की नायिकाएं उच्च मध्यवर्गीय महानगरीय परिवेश की हैं। विद्या की विदेश में हुई शिक्षा ने भी उसे लिबरेट किया है। ऐसे में उसके लिए अपने बारे में वैसे फैसले करने की स्वतंत्रता हासिल है जिसके लिए आम भारतीय लड़की सोच भी नहीं पाती। फिल्मों में किसी विचार का आना इस बात का सबूत तो नहीं हो सकता कि समाज उस विचार को मानने और अपनाने के लिए तैयार है। मुमकिन है कि फिल्मकार को लगता है कि इस विचार का समय आ गया है और हो सकता है कि वो समय से काफी आगे चल रहा है।
फंतासी और यथार्थ के बीच अक्सर काफी दूरी होती है। इसलिए ‘पा’ की महिलाओं के विचारों को समाज में कितनी स्वीकृति मिलेगी ये कह पाना अभी आसान नहीं है। लेकिन एक विचार के तौर पर ये बात आ गई है, ये तो ‘पा’ ने दिखा दिया है। इसकी वजह से समाज को आने वाली हिचकियों के कुछ संकेत तो फिल्मों में भी हैं और बाकी कुछ हिचकियों की हम कल्पना कर सकते हैं।लड़कियों के उच्च शिक्षा क्षेत्र में आने और आर्थिक रूप से उनके स्वतंत्र होने के बाद भारतीय परिवार अब पहले जैसे तो नहीं रह सकते। शहरीकरण और कैप्सूल फैमिली के यथार्थ बन जाने से भी बहुत कुछ बदल गया है। विवाह संस्था, एकनिष्ठता, पुरुष वर्चस्व जैसी कई अवधारणाएं अब संकट में हैं। बदलाव की आहट चौतरफा है। इस बदलाव के कुछ नमूने ये फिल्म दिखा गई है।
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1 comment:
शाबाश, अनुराधा।
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