Monday, December 14, 2009

एकनिष्ठता की अवधारणा और इसके राजनीतिक आयाम : समवेत व्याख्यानमाला -1






युवा चिंतन और शोध की दिशा में क्या चल रहा है, इसके सम्यक आकलन के लिएसमवेत नाम का एक अध्ययन मंडल बनाया गया है, जो हर महीने दिल्ली में एक संवादमाला आयोजित करता है। इस संवादमाला में आपका स्वागत है। इससे जुड़ कर अपने पसंदीदा किसी विषय पर साहित्यिक और गैर-साहित्यिक सामग्री भी हमें भेज सकते हैं जिसे इस ब्लॉग के अलावा किसी पत्र-पत्रिका के लिए भी आपके नाम के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है। इस बीच आपने कुछ नया, कुछ रोचक पढ़ा हो तो उसे भी हमारे साथ साझा करें- नेट का लिंक/स्कैन/ट्रांसक्रिप्कशन या लिख कर हमें भेज दें।
पांच दिसंबर को हुए संवाद का विषय प्रतिपादन जाने-माने विचारक, लेखक राजकिशोर जी ने किया। उनके वक्तव्य पर आधारित इस ब्लॉग की पहली पोस्ट आपके सामने है। इस पर अपने विचार/ आलोचना टिप्पणी के रूप में देना न भूलें। इंतजार रहेगा।
सादर,
samvetsamvadmala@gmail.com
द्वारिका प्रसाद चारुमित्र, कृष्ण कालजयी, अनामिका, राज किशोर, राम बक्श जाट, मदन कश्यप, कुमार संजीव, आर. अनुराधा, अर्चना वर्मा, जीतेंद्र श्रीवास्तव, रविकांत, राजीव रंजन गिरि

एकनिष्ठता की अवधारणा: वैयक्तिक और राजनैतिक आयाम
-राजकिशोर
आने से पहले मैंने सोचा कि एकनिष्ठता शब्द का कोशगत अर्थ देख लिया जाए। तो शब्दकोश में इसका अर्थ है में निष्ठित होना। यानी किसी चीज में निष्ठा रखना। मैंने यह भी सोचा कि अंग्रेजी में इसके लिए उपयुक्त शब्द क्या हो सकता है तो मुझे ऐसा कोई शब्द नहीं मिला। डेडिकेटशन, कमिटमेंट जैसे शब्द हैं लेकिन वे इसके आसपास का मतलब देते हैं इसके पूरे अर्थ को समेटने वाला शब्द अंग्रेजी में नहीं मिलता। इसका यह मतलब निकाला जा सकता है कि एकनिष्ठता की अवधारणा भारतीय संस्कृति से उपजी मौलिक अवधारणा है। यह कहीं बाहर से नहीं आई।

यह भी गौर करने की बात है कि केवल भारतीय दर्शन में ही आत्मा के परमात्मा में विलय की अवधारणा है। किसी और दर्शन में विलय की व्यवस्था नहीं है। उनमें ईश्वर अलग है और व्यक्ति अलग। ईश्वर न्याय करता है स्वर्ग या नरक में भेजता है पर एक के दूसरे में विलीन होने की बात सिर्फ भारतीय दर्शन में है।

एकनिष्ठता की जो अवधारणा बनी वह व्यक्तित्व के विलय के सिद्धांत से ही निकली है। इस अवधारणा में स्त्री का व्यक्तित्व पुरुष में पूरी तरह विलीन हो जाए यह मांग रहती है। पुरुष का व्यक्तित्व स्त्री में विलीन हो यह मांग नहीं है। आप जानते हैं कि कमजोर का मजबूत में विलयन होता है मजबूत का कमजोर में विलय नहीं होता। यह बात समाज में भी दिखती है, जाति व्यवस्था में भी दिखती है। दलित जो है वह समाज में अपने को विलीन कर दे ऐसी मांग रहती है।

परिवार अलोकतांत्रिक, सामंती संस्था रहा है, भारत में भी और पश्चिम में भी। (भारत में वह आज भी है) एकनिष्ठता के सवाल पर अलग से मैंने विचार नहीं किया लेकिन अभी कोलकता में हिंद स्वराज पर एक सम्मेलन हाल ही में हुआ जिसमें मैं शामिल हुआ। मैं इसे उस अवधारणा से जोड़ कर देखना चाहता हूं।

मनुष्य एक नितांत असामाजिक प्राणी है। समाज एक फेक चीज है फर्जी चीज है। वास्तव में होता है समुदाय। मुझे लगता है कि सामाजिकता के बजाय सामुदायिकता पर जोर देना चाहिए।

आदिम साम्यवाद की अवस्था में लौटने का कोई मतलब नहीं है, लेकिन चूंकि वह हमारी आदिम अवस्था थी, वह हमारी प्राकृतिक संरचना के सर्वाधिक अनुकूल अवस्था थी। उस संरचना से हम जितना भटकेंगे उतना ही हम अपने एसेंस से दूर जाएंगे। यह हमारा प्रस्थान बिंदु होना चाहिए कि कैसे हम अपने मूल स्वभाव के करीब रहें।

सामंतवाद ने, पूंजीवाद ने मनुष्य को अपने मूल स्वभाव से दूर कर दिया है, मानव स्वभाव को बिगाड़ दिया है। -इसी संदर्भ में गांधीवाद का जिक्र मैं करना चाहता था। ग्राम स्वराज की अवधारणा मनुष्य को उसके सहज स्वभाव की तरफ ले जाने में मददगार हो सकती है।



1 comment:

समवेत said...

राजकिशोर जी ने कहा-
Very good.
r.