Tuesday, December 15, 2009

एकनिष्ठता पर गोष्ठी से उपजे कुछ विचार टुकड़ों में

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-प्रणव प्रियदर्शी
निष्ठता की अवधारणा जैसा कि राजकिशोर जी ने संकेत दिया, अगर मूलत: भारतीय है भी तो इससे क्या फर्क पड़ता है सिवाय इसके कि इसकी थित भारतीयता के आधार पर सांस्कृति राष्ट्रवाद का नारा देने वाले बहुत से लोग इस अवधारणा के खिलाफ आने वाले किसी भी तर्क को भारतीय संस्कृति पर हमला रार देने की सहूलियत पा लेते हैं? भारतीय दर्शन की पृष्ठभूमि पा लेने से यह अवधारणा म अमानवीय तो नहीं हो जाती? 


वैसे सच है (और आश्चर्यजन भी) कि इसे मानवीयता की पराकाष्ठा के रूप में चित्रित किया जाता रहा है। इसीलिए शायद यह जरूरी भी है कि इसकी मानवीयता अथवा अमानवीयता संबंधी निष्र्ष को अंडरस्टूड मान र आगे बढ़ जाने के बदले थोड़ी चर्चा उस निष्र्ष के आधारों पर भी र ली जाए। हा जा सता है कि ए अवधारणा के रूप में एनिष्ठता अपनेआप में अमानवीय नहीं होती। अगर इसके साथ किसी तर का आग्रह न जोड़ा जाए और यह पूरी तरह स्वैच्छि हो तो इसे अमानवीय रार देना किसी के साथ ज्यादती भी हो सता है। मगर,  खास सांस्कृति पृष्ठभूमि में आग्रह से पूरी तरह बचना मुमकिन भी तो नहीं। एनिष्ठता की यही अवधारणा स्वेच्छा के ही आवरण में सती जैसी प्रथा को इस देश की महिलाओं पर सदियों त लादे रहने का औजार बन सती है यह हम देख चुके हैं। ऐसे में आग्रह से पूरी तरह बचे रहने का आग्रह अपने आप में हास्यास्पद हो जाता है। हां यह जरूर देखा जा सता है कि आग्रह यथासंभव म हो और जो न्यूनतम संभव आग्रह है (समाज की तरफ से, विचारधारा की तरफ से, जीवनमूल्यों की तरफ से) उसकी दिशा क्या है, उसका स्वरूप क्या है?


मतलब यह कि जो आग्रह आज की महिलाओं पर है वह संस्कृति की महानता, महिलाओं के देवत्व आदि की दिशा की ओर ले जाना वाला है (दूसरे शब्दों में औरत और इंसानियत विरोधी, पुरुषसत्ता समर्थ है) या समानता-सहजता की ओर ले जाने वाला। 


गोष्ठी में एनिष्ठता के ही संदर्भ में प्रेम पर भी चर्चा हुई और इसे बेकाकी चीज भी हा गया। ईमानदारी, वफादारी और परिवार पर भी चर्चा हुई। मुझे लगता है, ध्यान में रखने वाली बात यह है कि परिवार जैसी सामंती संस्था हो या वफादारी जैसे सामंती मूल्य या फिर एनिष्ठता जैसी अवधारणा - इसका विरोध रने की जरूरत इसलिए है क्योंकि ये जीवन की सहजता को बाधित रते हैं। इस सहजता की वकालत का मतलब गैरजिम्मेदारी का बचाव नहीं है, ईमानदारी का विरोध नहीं है। यह देखने की कोशिश है कि क्या हमारी जिम्मेदारी और ईमानदारी को प्रचलित संदर्भों से अलग अन्य संदर्भों में भी देखा-परखा जा सता है? क्या परिवार के अलावा किसी और इकाके आधार पर भी हमारे संबंधों का ताना-बाना बुना जा सता है? 


सद जीवन को अधि न्यायपूर्ण, समतामूल और सहज बनाना ही होना चाहिए। इस रास्ते में अगर प्रेम आपको बाधा नजर आता है तो उसका भी विरोध कीजिए लेकिन यह देख लीजिए कि सचमुच आपका विरोध प्रेम से है या उसके प्रचलित स्वरूप से या उसके नाम पर चलने वाले व्यापार से। जरा यह भी सोच लीजिए कि इंसानियत से अगर आपने प्रेम छीन लिया तो फिर उसके पास बचेगा क्या?

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