-प्रणव प्रियदर्शी
एकनिष्ठता की अवधारणा जैसा कि राजकिशोर जी ने संकेत दिया, अगर मूलत: भारतीय है भी तो इससे क्या फर्क पड़ता है सिवाय इसके कि इसकी कथित भारतीयता के आधार पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा देने वाले बहुत से लोग इस अवधारणा के खिलाफ आने वाले किसी भी तर्क को भारतीय संस्कृति पर हमला करार देने की सहूलियत पा लेते हैं? भारतीय दर्शन की पृष्ठभूमि पा लेने से यह अवधारणा कम अमानवीय तो नहीं हो जाती?
वैसे सच है (और आश्चर्यजनक भी) कि इसे मानवीयता की पराकाष्ठा के रूप में चित्रित किया जाता रहा है। इसीलिए शायद यह जरूरी भी है कि इसकी मानवीयता अथवा अमानवीयता संबंधी निष्कर्ष को अंडरस्टूड मान कर आगे बढ़ जाने के बदले थोड़ी चर्चा उस निष्कर्ष के आधारों पर भी कर ली जाए। कहा जा सकता है कि एक अवधारणा के रूप में एकनिष्ठता अपनेआप में अमानवीय नहीं होती। अगर इसके साथ किसी तरह का आग्रह न जोड़ा जाए और यह पूरी तरह स्वैच्छिक हो तो इसे अमानवीय करार देना किसी के साथ ज्यादती भी हो सकता है। मगर, एक खास सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में आग्रह से पूरी तरह बचना मुमकिन भी तो नहीं। एकनिष्ठता की यही अवधारणा स्वेच्छा के ही आवरण में सती जैसी प्रथा को इस देश की महिलाओं पर सदियों तक लादे रहने का औजार बन सकती है यह हम देख चुके हैं। ऐसे में आग्रह से पूरी तरह बचे रहने का आग्रह अपने आप में हास्यास्पद हो जाता है। हां यह जरूर देखा जा सकता है कि आग्रह यथासंभव कम हो और जो न्यूनतम संभव आग्रह है (समाज की तरफ से, विचारधारा की तरफ से, जीवनमूल्यों की तरफ से) उसकी दिशा क्या है, उसका स्वरूप क्या है?
मतलब यह कि जो आग्रह आज की महिलाओं पर है वह संस्कृति की महानता, महिलाओं के देवत्व आदि की दिशा की ओर ले जाना वाला है (दूसरे शब्दों में औरत और इंसानियत विरोधी, पुरुषसत्ता समर्थक है) या समानता-सहजता की ओर ले जाने वाला।
गोष्ठी में एकनिष्ठता के ही संदर्भ में प्रेम पर भी चर्चा हुई और इसे बेकार की चीज भी कहा गया। ईमानदारी, वफादारी और परिवार पर भी चर्चा हुई। मुझे लगता है, ध्यान में रखने वाली बात यह है कि परिवार जैसी सामंती संस्था हो या वफादारी जैसे सामंती मूल्य या फिर एकनिष्ठता जैसी अवधारणा - इसका विरोध करने की जरूरत इसलिए है क्योंकि ये जीवन की सहजता को बाधित करते हैं। इस सहजता की वकालत का मतलब गैरजिम्मेदारी का बचाव नहीं है, ईमानदारी का विरोध नहीं है। यह देखने की कोशिश है कि क्या हमारी जिम्मेदारी और ईमानदारी को प्रचलित संदर्भों से अलग अन्य संदर्भों में भी देखा-परखा जा सकता है? क्या परिवार के अलावा किसी और इकाई के आधार पर भी हमारे संबंधों का ताना-बाना बुना जा सकता है?
मकसद जीवन को अधिक न्यायपूर्ण, समतामूलक और सहज बनाना ही होना चाहिए। इस रास्ते में अगर प्रेम आपको बाधा नजर आता है तो उसका भी विरोध कीजिए लेकिन यह देख लीजिए कि सचमुच आपका विरोध प्रेम से है या उसके प्रचलित स्वरूप से या उसके नाम पर चलने वाले व्यापार से। जरा यह भी सोच लीजिए कि इंसानियत से अगर आपने प्रेम छीन लिया तो फिर उसके पास बचेगा क्या?
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